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क्या भारत में न्याय की माँग करना गुनाह है, जिसकी कीमत पाँच लाख होगी

  • Writer: India Plus Tv
    India Plus Tv
  • Nov 3, 2022
  • 3 min read

सुप्रीम कोर्ट ने पिछले दिनों साल 2009 में कथित तौर पर आदिवासी नरसंहार मामले की जांच से जुड़ी याचिका खारिज कर दी थी। छत्तीसगढ़ के दंतेवाड़ा में 2009 में आदिवासियों की कथित तौर पर एक्सट्रा ज्युडिशियल हत्या के मामले में सुरक्षा बलों के खिलाफ निष्पक्ष जांच की मांग करने वाले कार्यकर्ता हिमांशु कुमार की याचिका को सुप्रीम कोर्ट ने खारिज कर दिया था। शीर्ष अदालत ने कुमार पर 5 लाख रुपये का जुर्माना भी लगाया है।

हिमांशु कुमार के साथ में करटम सुरेश

हिमांशु कुमार एक मानवाधिकार कार्यकर्ता के साथ ही गांधीवादी कार्यकर्ता हैं जिन्होंने छत्तीसगढ़ के आदिवासी बहुल क्षेत्रों में दशकों कार्य कर अपनी सेवा दी है, का कहना है कि " छत्तीसगढ़ के सुकमा जिले के गोमपाड़ गांव में सन 2009 में सरकारी पुलिस और सुरक्षाबलों द्वारा किया गया जनसंहार आजादी के बाद आदिवासियो पर सबसे क्रूर सरकारी हमला है, इसमें 16 आदिवासियों को सरकारी पुलिस और सुरक्षाबलों ने तलवारों से काटा था और गोलियों से छलनी कर दिया था। मारे गए लोगों में ज्यादातर बुजुर्ग और महिलाएं थी जिसमें एक डेढ़ साल के बच्चे की उंगलियां भी काट दी गई थी। इस देश में कितने ही आदिवासी संगठन हैं कितने ही आदिवासी पढ़े-लिखे नौजवान हैं, कितने ही आदिवासी वकील, आईएएस-आईपीएस, प्रोफेसर, एमपी-एमएलए और अब भारत की राष्ट्रपति खुद आदिवासी हैं। लेकिन कोई इस घटना पर न तो क्रोधित है ना दुखी है ना बोल रहा है, हिमांशु कुमार के लिए मत बोलिए लेकिन अपने आदिवासियों के लिए तो बोलिए। "


सुप्रीम कोर्ट द्वारा उनके याचिका को झूठा कहने पर कुमार का कहना है कि " मैं 5 लाख का जुर्माना नहीं भरूंगा, मैं जेल जाऊंगा और हंसते हंसते जाऊंगा। मेरा कौन सा मुकदमा झूठा साबित हुआ है? इस से पहले के सभी मामलों में मेरी जीत हुई है और सरकार हारी है। इस मामले में मैं कैसे झूठ बोल सकता हूं?" ये बातें उन्होंने यूट्यूब के एक चैनल को साक्षात्कार देते हुए कहीं।


आज दोपहर 1:00 बजे जंतर मंतर पर अपना विरोध दर्ज़ करने के उद्देश्य से कुमार ने सोशल मीडिया पर लोगों से वहाँ उपस्तिथि दर्ज़ करके सहयोग करने की अपील की थी जिसके बाद वे लोग रिव्यू पिटीशन पर हस्ताक्षर करेंगे। जिसमें पीड़ित आदिवासी सुप्रीम कोर्ट से कहेंगे कि वह अपने फैसले पर पुनर्विचार करे। छत्तीसगढ़ से पहुंचे आदिवासी देश की राजधानी में छ दिन रुकेंगे, यदि आप एक आदिवासी या आदिवासियों के हमदर्द हैं तो आप उनलोगों से भेंट कर उनकी सहायता अवश्य कीजियेगा उनकी इस न्याय की मुहीम में।


2009 के उस जनसंहार में कोंटा के गोम्पड़ गांव में एक तलाशी अभियान के दौरान सोलह ग्रामीणों की मौत हो गई थी। सुरक्षा बलों व पुलिस ने कट्टम कन्नी को निर्वस्त्र कर उसका बलात्कार किया और उसे मार डाला था। इस प्रक्रिया में, उन्होंने उसके शिशु ( करटम सुरेश ) की तीन उंगलियां काट दीं और रोते हुए बच्चे को उसकी मृत माँ की छाती पर रख छोड़ दिया था। इस तरह की घिनौनी हरकतें बस्तर पर युद्ध का हिस्सा हैं, जहाँ सेना न केवल ग्रामीणों को नक्सली बताकर मार देती है, बल्कि हिंसा के अमानवीय कृत्य भी करती है। वहाँ के सुरक्षा बलों द्वारा बरती जाने वाली बर्बरता की प्रकृति को देखते हुए, उन्हें " अधिक संतुलित " बनाने के लिए बलों के " मानसिक ताने-बाने में सुधार " करने के लिए जांच आयोग की सिफारिश पूरी तरह से अनुचित नहीं हो सकती है।


2009 में ऑपरेशन ग्रीन हंट की शुरुआत के बाद से छत्तीसगढ़, विशेष रूप से बस्तर क्षेत्र में मुठभेड़, उचित मानदंड बन गए, जब सुरक्षा बल पूरे गांवों में तलाशी लेते थे। इस चरण के परिणामस्वरूप 2005-07 की तुलना में बड़ी संख्या में मौतें हुईं जब सलवा जुडूम सबसे अधिक सक्रिय था।




न्यायिक जांच रिपोर्ट ने छत्तीसगढ़ में मुठभेड़ के अन्य मामलों को उजागर किया है। सुप्रीम कोर्ट के कई आदेश और राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग (एनएचआरसी) ने कहा है कि सभी मुठभेड़ गैर-न्यायिक और अवैध हैं। 2017 में अतिरिक्त न्यायिक निष्पादन पीड़ित परिवार संघ द्वारा दायर एक रिट याचिका में, मणिपुर में पुलिस और सुरक्षा बलों द्वारा 1,528 कथित न्यायेतर हत्याओं को सूचीबद्ध करते हुए, न्यायमूर्ति मदन लोकुर और उदय उमेश ललित ने कहा कि यहां तक कि एक "दुश्मन" से निपटने के दौरान भी, कानून का शासन लागू होगा।


आदिवासियों के ऊपर हुए इतने बड़े अत्याचार पर भारत का पूरा आदिवासी समाज चुप रहता है तो इसका क्या संदेश जाएगा? क्या इससे आदिवासियों का दमन करने, उनके संसाधनों पर कब्जा करने व लूटने वाली क्रूर शक्तियों को आप इसके बाद अपना दमन करने की खुली छूट नहीं दे रहे हैं?


स्रोत :

फ्रंटलाइन

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